आज उसके आँचल में सिर रखकर
सुकून पाने की चाह,
बस चाह बनकर रह गई…
बचपन में पाठशाला को लेकर रोना,
माँ का पल्लू थामे रहना,
उसे छोड़ना—
कितना दर्दनाक होता था!
पाठशाला की खिड़की से
आसमान को टकटकी लगाए निहारना,
माँ की गोद में सिर रखकर सोने की
तमन्ना करना,
कक्षा में रहकर माँ से दूर होना—
कितना कठिन होता था!
जिनके पास माँ नहीं होती,
क्या वो भी कक्षा में बैठकर
अपनी माँ के ख्वाब सजाते होंगे?
क्या वो भी माँ के आँचल के लिए
मन ही मन तरसते होंगे?
न जीत की खुशी मायने रखती,
न हार का ग़म,
ना चोट की टीस,
ना गुरुजी की सज़ा का डर।
हँसते-रोते घर आकर
माँ को सब कुछ बताना,
उसका मुस्काना,
और कहना—
“अरे! कितना बोला है मेरा लाल!”
बस वही काफी होता था
दिनभर की थकान को धोने को,
हर दर्द को भुलाने को,
हर डर से लड़ जाने को।
फिर वक्त बदला…
माँ का लाल बड़ा हो गया,
रोज़मर्रा की ज़िंदगी से
थककर लौटता था,
और उसी आदत से
दिल की बातें कहता था।
मगर अब माँ नहीं थी सामने,
एक तस्वीर थी दीवार पर,
जिससे करता दिल की बात,
आँखों में नमी लिए।
ना माँ कुछ कहती,
ना गोद में सुकून मिलता।
अब माँ बस तस्वीर में दिखती है,
और उसका आँचल…
जिसमें सिर रखकर चैन मिलता था,
वो अब एक अधूरी ख्वाहिश बन गया है।
– धारणा वी केसवानी
Contributed by
Dhaarna.V.Keswani
Edited by Ms Padmavati Naik
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